प्रमुख-लोगों-की-दुर्बलताएँ
युधिष्ठिर…..क्षत्रिय कुल में जन्म लेकर भी युद्ध के प्रति घोर वितृष्णा मेरे चरित्र की दुर्वलता है |
अर्जुन …….माँ के वचन रख कर मैंने द्रोपदी के साथ ;विवाह किया ;इस बात पर मन में क्षोभ होता है |मन करता है वह सिर्फ मेरी होती |यह सोचना मेरे
चरित्र की दुर्वलता है |
भीम …….भोजन में जैसे मेरा ज्यादा भाग है पांचाली के भोग में भी मेरा भाग अधिक रखा जाता |ऐसा न करने के कारण कृष्णऔर कृष्णा{द्रोपदी }पर क्षोभ
आता है |मैं कुछ अधिक भोजन करता हूँ अत: सदा विपत के मुंह धकेल देते हैं ,अत: भाईयो और माँ पर मान होता है |
नकुल ……कृष्णा रूप में मुझसे भी श्रेष्ठ है ;अनिंद्य है अत: उन पर ईर्ष्या होती है |
सहदेव ……मेरी दुर्वलता मेरी माँ है |कुन्ती पुत्र के रूप में परिचय देकर हम गर्व करते हैं |परन्तु हमारी जन्म दात्री पांडु_पत्नी माद्री का नाम धीरे -धीरे विस्मृत
होता जायेगा ;कभी इतिहास से लोप हो जाएगा |माता -पिता की स्मृति को अमर रखना पुत्रों का कर्तव्य है|अत: मेरी दुर्वलता क्या स्वाभाविक नहीं?
द्रोपदी ……..मेरे हृदय की पहली दुर्वलता है प्रिय बंधु कृष्ण |मेरे जन्म के समय नामकरण की घड़ी से ही मुझे लगता था कि किसी अलोकिक पुरुष कृष्ण के साथ
कृष्णा का अदृश्य अपार्थिव और अविच्छेद संपर्क है |मेरी दूसरी दुर्वलता है कुन्ती पुत्र ,मेरे नारी ह्रदय की सवेंदनशीलता कुन्ती पुत्रों को पार नहीं कर सकी |ज्येष्ठ
कुन्ती पुत्र से लेकर कनिष्ठ कुन्ती पुत्र तक ;सबके प्रति मेरे मन में आकर्षण है |मेरी तीसरी दुर्वलता है श्रेष्ठ अर्जुन |अर्जुन वीर और नम्र हैं अत:पांडव संसार का
सारा दायित्व उन्हीं पर डाल दिया जाता है|एक की साधना का फल चारों भोग करें ;यह कैसा न्याय है?मैंने पाँचों पांडवोंको बांध रखने के लिए जीवन को उत्सर्ग
किया है |
कृष्ण…….मेरी दुर्वलता तो स्वर्ग ,मर्त्य ,पाताल सर्वत्र व्याप्त है |अनन्त विश्व ब्रह्मांडके साथ खेलना मेरी दुर्वलता है |मुझे जो अति प्रेम करता है ,उसे ही अधिक
परेशान करता हूँ |जो सोचते हैं कृष्ण मेरे हैं मैं उसके पास माया बन जाता हूँ ,जो सोचता है मैं कृष्ण का हूँ उसके पास मैं बंधक हो जाता हूँ |जिसे गढता हूँ उसे
तोड़ता भी हूँ |इसी में आनंद है |
माँ ………इतिहास के पन्नों में बेटा जीवित रहने पर माँ का दुःख नहीँ मिटता ,वीरोचित मृत्यु वरण कर अमर बनाने के लिए कोई माँ पुत्र की मृत्यु कामना नहीं
करती |
मनुष्य ………जीवन की विस्तृत अनुभूति के बावजूद जीवन सदा सुख -दुःख ,सम्पद -विपद ,मिलन -विरह ,जन्म-मरण के रहस्य में ही रह जाता है |
नशा ……..कोई भी नशा हो विपद जनक होता है |दान के नशे के कारण ही बाली पाताल गए |द्यूतक्रीड़ा के नशे में मिली पराजय और अपमान को युधिष्ठिर जीवन भर
न भूले ,उनके धर्म निष्ठ होने पर प्रश्न लग गए |नशा ;पता नहीं कैसी प्रति हिंसा का मौका ढूढें वह मन ही मन |
विशेष टिप्पणी……
किसी अज्ञानी को खुद फैसला करने का शौक रखने दो ,किसी निम्न पद के व्यक्ति को बड़े -बड़े निर्देश देने का शौक रखने दो किसी समकालीन व्यक्ति को आदिम तौर -तरीकों
की तरफ लौट जाने का शौक रखने दो ,इन बातों से निश्चय ही सर्व नाश होता है |