भटकन हमारा सबसे बड़ा शत्रु है |इससे बचने का एक मात्र उपाय है ध्यान | ध्यान में तीव्र आभा है ,ध्यान में प्राणों की
गति आकंठ डूबीं रहती है | ध्यान मौन है |ध्यान करने से अंतश्चेतना के बाकी सभी अंग मौन हो जाते है |
ध्यान के सामने समर्पण निश्चित चेष्टा है | समर्पण विश्वास है | विश्वास में ही आस्था की प्रतिध्वनि है |प्रतिध्वनि व्यर्थ
के कम्पनों से बचा लेती है |सामने मात्र ध्येय रहता है |
स्थित प्रग्य सामान्य से असामान्य होकर ध्यान के अलौकिक जगत में पहुँच जाता है |
ध्यान में अपार क्षमता है क्योंकि वह एकाक्षी है |
ध्यान ही है जो काव्य को जन्म देता है | जो कबीर जैसे अक्खड़ ,अनपढ़ को ज्ञान की कसोटी दे जाता है | वह उस अमर
वृक्ष के नीचे खड़ा कर देता है ,जहाँ कुछ मांगना नहीं पडता ,अपने आप जिज्ञासुओं के द्वार खुल कर सार्थक हो जाते हैं |
यही ध्यान है जिससे एक अदना सा आदमी स्वामी ,सन्यासी ,सूफी और चिन्तक बनता है |
सूफी ,चिन्तक और साधक ही हैं कि उनके जहाँ -जहाँ हस्ताक्षर होंगे वे जड़ भी जीवित होकर जीवन की साँस लेने लगेंगे |
अमित हस्ताक्षर ही तो साक्षात ब्रह्म है |जिसे वे मिल जाएँ ,अभिलाषाएँ शेष नहीं रहतीं |
आदमी की सबसे बड़ी लाचारी उसकी आदत है |
मृत्यु के पूर्व दुखों को विजित कर लेना ही अनश्वर होना है |
तोडना सहज है ,जोड़ना कठिन है ,जिस दिन जोड़ने की ताकत आ गई सिद्धि का वह श्रेष्ठतम वरदान बन जाता है |
योग में मात्र ध्यान है और ध्यान अहंकार से कोसों दूर है |
सिर मनुष्य शरीर का दृढतम अंग है |सिर में लचीलापन नहीं है |वही है जो झुकता नहीं है |जहां हम समझते हैं कि
हमने सिर झुका दिया ,सचमुच हम एक गलत परिभाषा को मान लेते हैं ,झुकती है गर्दन | गरदन के ऊपर है सिर और यही
है ,जो न झुकता है न नष्ट होता है |

चिंतन और चेतना के बीज मन्त्रों का यही केंद्र बिंदु है |स्थिति अजीव है ,सिर सुद्रढ़ है तो वही है ,जो वायु की तरह भटकता
है और सोच के अनन्त द्वारों को एक साथ ,इस तरह खोलता है कि मनुष्य की समूची क्रिया शीलता उसी तरह संचालित
होने लगती है |